लोक अदालतें

  • लोक अदालतें ऐसे मंच या फोरम हैं जहाँ न्यायालय में लंबित या मुकदमे के रूप में दाखिल नहीं किये गए मामलों का सौहार्द्रपूर्ण तरीके से निपटारा किया जाता है।
  • यह सामान्य न्यायालयों से अलग होता है, क्योंकि यहाँ विवादित पक्षों के बीच परस्पर समझौते के माध्यम से विवादों का समाधान किया जाता है। 
  • लोक अदालत की स्थापना का विचार सर्वप्रथम भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन.भगवती द्वारा दिया गया था।
  • सबसे पहली लोक अदालत का आयोजन 1982 में गुजरात में किया गया था।
  • 2002 से लोक अदालतों को स्थायी बना दिया गया। 
  • लोक अदालतों में सभी दीवानी मामले, वैवाहिक विवाद, नागरिक मामले, भूमि विवाद, मज़दूर विवाद, संपत्ति बँटवारे संबंधी विवाद, बीमा और बिजली संबंधी आदि विवादों का निपटारा किया जाता है।
  • लोक अदालतों में किसी भी प्रकार की कोर्ट फीस नहीं लगती। यदि न्यायालय में लंबित मुकदमे में कोर्ट फीस जमा करा दी गई हो तो लोक अदालत में विवाद का निपटारा हो जाने पर वह फीस वापस कर दी जाती है।
  • इसमें दोनों पक्षकार जज के साथ स्वयं अथवा अधिवक्ता के माध्यम से बात कर सकते हैं, जो कि नियमित अदालत में संभव नहीं होता है।
  • लोक अदालतों द्वारा ज़ारी किया गया अवार्ड (पंचाट) दोनों पक्षों के लिये बाध्यकारी होता है। इसके विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
  • स्थायी लोक अदालतों के गठन के पश्चात कोई भी पक्ष जिसका संबंध जनहित सेवाओं जैसे- बिजली, पानी व अस्पताल आदि से है, संबंधित विवादों को निपटाने के लिये स्थायी लोक अदालत में आवेदन कर सकता है। 
  • स्थायी लोक अदालत अपने किये गए निर्णय के निष्पादन के लिये उसे क्षेत्रीय आधिकारिता रखने वाले न्यायालय के पास भेज सकती है और यह जिस न्यायालय के पास भेजा जाएगा, वह उस निर्णय का पालन उसी प्रकार करवाएगा, जैसे स्वयं द्वारा पारित निर्णय अथवा डिक्री की करवाता है। 
  • लोक अदालतों का सबसे बड़ा गुण निःशुल्क तथा त्वरित न्याय है।
  • ये विवादों के निपटारे का वैकल्पिक माध्यम है।
  • इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि देश का कोई भी नागरिक आर्थिक या किसी अन्य अक्षमता के कारण न्याय पाने से वंचित न रह जाए।
  • इन अदालतों से वर्तमान भारतीय न्यायिक प्रक्रिया को नवजीवन मिला है, जो मुकदमों के बोझ तथा महँगे न्याय की समस्या से ग्रसित होकर निष्क्रिय सी हो गई थी।

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