डक्कन कॉलेज पुणे के खोदाई व पुरातत्त्व विशेषज्ञ प्रोफेसर वसंत शिंदे और हरियाणा के पुरातत्त्व विभाग द्वारा किए गए अब तक के शोध और खोदाई के अनुसार लगभग 5500 हेक्टेअर में फैली यह राजधानी ईसा से लगभग 3300 वर्ष पूर्व मौजूद थी। इन प्रमाणों के आधार पर यह तो तय हो ही गया है कि राखीगढ़ी की स्थापना उससे भी सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुकी थी। प्रोफेसर शिंदे के अनुसार खोदाई के मध्य पाए गए नरकंकालों से लिए गए डीएनए नमूनों का अध्ययन जारी है और अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राखीगढ़ी के अवशेषों का विश्लेषण किया जा रहा है।
  • अब तक यही माना जाता रहा है कि इस समय पाकिस्तान में स्थित हड़प्पा और मुअनजोदड़ो ही सिंधुकालीन सभ्यता के मुख्य नगर थे। इस गांव में खोदाई और शोध का काम रुक-रुक कर चल रहा है। हिसार का यह गांव दिल्ली से एक सौ पचास किलोमीटर की दूरी पर है। पहली बार यहां 1963 में खोदाई हुई थी और तब इसे सिंधु-सरस्वती सभ्यता का सबसे बड़ा नगर माना गया। उस समय के शोधार्थियों ने सप्रमाण घोषणाएं की थीं कि यहां दफ्न नगर, कभी मुअनजोदड़ो और हड़प्पा से भी बड़ा रहा होगा।
  • विलुप्त सरस्वती नदी के किनारों पर ही स्थित था यह शहर। पुरातत्त्वविदों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता का प्रारंभ इसी राखीगढ़ी से माना जा सकता है। 1997 में यहां से, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को जो कुछ भी उत्खनन के मध्य मिला, उससे पहला तथ्य यह उभरा कि ‘राखीगढ़ी’ शहर लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की परिधि में फैला हुआ था। यहां से जो भी पुराने अवशेष मिले उनकी उम्र पांच हजार वर्ष से भी अधिक है।
  • राखीगढ़ी में कुल नौ टीले हैं। उनका नामकरण, शोध की सूक्ष्मता के मद्देनजर आरजीआर से आरजीआर-9 तक किया गया है। आरजीआर-5 का उत्खनन बताता है कि इस क्षेत्र में सर्वाधिक घनी आबादी थी। वैसे भी इस समय यहां पर आबादी घनी है इसलिए आरजीआर-5 में ज्यादा उत्खनन संभव नहीं है। लेकिन आरजीआर-4 के कुछ भागों में उत्खनन संभव है।
  • 2014 में राखीगढ़ी की खोदाई से प्राप्त वस्तुओं की ‘रेडियो-कार्बन डेटिंग’ के अनुसार इन अवशेषों का संबंध हड़प्पा-पूर्व और प्रौढ़-हड़प्पा काल के अलावा उससे भी हजारों वर्ष पूर्व की सभ्यता से भी है। आरजीआर-6 से प्राप्त अवशेष इस सभ्यता को लगभग 6500 वर्ष पूर्व तक ले जाते हैं।
  • अब सभी शोध विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि राखीगढ़, भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान का आकार और आबादी की दृष्टि सबसे बड़ा शहर था। इस क्षेत्र में विकास की तीन-तीन परतें मिलीं हैं। लेकिन अभी भी इस क्षेत्र का विस्तृत उत्खनन बकाया है। प्राप्त विवरणों के अनुसार इस समुचित रूप से नियोजित शहर की सभी सड़कें 1.92 मीटर चौड़ी थीं। यह चौड़ाई काली बंगा की सड़कों से भी ज्यादा है। कुछ चारदीवारियों के मध्य कुछ गड्ढे भी मिले हैं, जो संभवत: किन्हीं धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी बलि-प्रथा के लिए प्रयुक्त होते थे। एक ऐसा बर्तन भी मिला है, जो सोने और चांदी की परतों से ढका है। इसी स्थल पर एक ‘फाउंड्री’ के भी चिह्न मिले हैं, जहां संभवत: सोना ढाला जाता होगा। इसके अलावा टैराकोटा से बनी असंख्य प्रतिमाएं तांबे के बर्तन और कुछ प्रतिमाएं और एक ‘फर्नेस’ के अवशेष भी मिले हैं। एक श्मशान-गृह के अवशेष भी मिले हैं, जहां 8 कंकाल भी पाए गए हैं। उन कंकालों का सिर उत्तर दिशा की ओर था। उनके साथ कुछ बर्तनों के अवशेष भी हैं। शायद यह उन लोगों की कब्रगाह थी, जो मुर्दों को दफ्नाते थे।
  • अप्रैल 2015 में आरजीआर-7 की खोदाई के मध्य चार नर कंकाल भी मिले। इनमें से तीन की पहचान पुरुष और एक की स्त्री के रूप में की जा सकी है। इनके पास से भी कुछ बर्तन और कुछ खाद्य-अवशेष मिले। इस सारी खोदाई के मध्य नवीनतम टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया गया ताकि संभव हो तो इन अवशेषों का डीएनए टैस्ट भी हो सके। इससे यह भी पता चल पाएगा कि लगभग 4500 वर्ष पहले हड़प्पन लोगों की शारीरिक संरचना कैसी थी।
  • राखीगढ़ी में ‘हाकड़ा वेयर’ नाम से चिह्नित ऐसे अवशेष भी मिले हैं, जिनका निर्माण काल सिंधु घाटी सभ्यता और सूख चुकी सरस्वती नदी घाटी के काल से मेल खाता है। इस क्षेत्र में आठ ऐसी समाधियां और कब्रें भी मिली हैं, जिनका निर्माण काल लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व तक तो ले ही जाता है। एक कंकाल तो लकड़ी के भुरभुरे हो चुके ताबूत में मिला। कुछ विशिष्ट समाधियों और कब्रों पर छतरियां बनाने की प्रथा भी थी।
  • फिलहाल, राखीगढ़ी में कुछ समय से उत्खनन बंद है, क्योंकि इस क्षेत्र में राजकीय अनुदानों का दुरुपयोग संबंधी आरोपों की जांच इन दिनों सीबीआई कर रही है। मई 2012 में ‘ग्लोबल हैरिटेज फंड’ ने इसे, एशिया के दस ऐसे ‘विरासत-स्थलों’ की सूची में शामिल किया है, जिनके नष्ट हो जाने का खतरा है। एक अखबार की विशेष रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में कुछ ग्रामीणों और कुछ पुरातत्त्व-तस्करों ने अवैध रूप से कुछ क्षेत्रों में खोदाई की थी और यहां से कुछ दुर्लभ अवशेष अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बेचे गए हैं। आसपास के कुछ क्षेत्रों में नए निजी निर्माण भी देखे जा सकते हैं। वैसे, 1997 से लेकर अब तक सर्दियों के मौसम में तीन बार अधिकृत रूप में भी खुदाइयां हो चुकी हैं और जो कुछ भी मिला है, वह सिंधु-सरस्वती सभ्यता की एक खुली और विस्तृत दृष्टि से देखने पर विवश करता है।

राखीगढ़ी का पुरातात्त्विक महत्त्व विशिष्ट है। इस समय यह क्षेत्र पूरे विश्व के पुरातत्त्व-विशेषज्ञों की दिलचस्पी और जिज्ञासा का केंद्र है। यहां बहुत से काम बकाया हैं, जो अवशेष मिले हैं, उनका समुचित अध्ययन अभी शेष है। उत्खनन का काम अब भी अधूरा है।

‘उस पार’ की स्थापत्य कला


  • भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास का अध्ययन हमें सैंधव सभ्यता से जोड़ता है। मुअनजोदड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेष गवाही देते हैं कि ये दोनों सभ्यताएं लगभग समकालीन थीं। मुअनजोदड़ो, पाकिस्तान सिंध प्रदेश के जिला लरकाना में स्थित है और हड़प्पा जिला मौंटगुमरी (जिला साहीवाल) में रावी के किनारे स्थित है। अवशेष बताते हैं कि ये दोनों सभ्यताएं ईरान के एलाम क्षेत्र और इराक के दजला-फरात की घाटी में बसे नगरो-ं सुमेरी, कीश, ऊर बाबुल और असूरी तक फैली हुई थीं।
  • इन सारे अवशेषों में एकरूपता है। विकास के क्षेत्र के साथ-साथ इनका स्वरूप भी बदलता रहा। अध्ययन में एक तथ्य यह भी उभरता है कि इस काल की सभ्यता मातृसत्तात्मक थी। वैसे भी उस काल के महातृरूपेण देवी की पूजा की ओर विशेष रुझान इसी व्यवस्था का संकेत देते हैं।
  • वैसे सिंधु सभ्यता के विषय में प्राप्त जानकारी का इतिहास भी बेहद रोचक है। पिछली सदी में एक प्रख्यात भारतीय पुरातत्त्व विशेषज्ञ राखालदास वंद्योपाध्याय को सबसे पहले कुषाण कालीन स्तूप और बौद्ध अवशेष मिले थे। उन्हीं अवशेषों के नीचे सोया था एक विशाल नगर।
  • वंद्योपाध्याय से पूर्व एक युवा पुरातत्त्व विशेषज्ञ ननिगोपाल मजूमदार ने उत्खनन का जोखिम उठाया था, मगर उसकी खोदाई के मध्य ही बलोच डाकुओं के एक दल ने उसे गोली मार दी। वैसे भी उत्खनन का इतिहास बताता है कि इन दोनों प्राचीन सम्यताओं के साथ तोड़फोड़, लूटमार और छेड़छाड़ करने के आरोपी दूसरी तीसरी सदी के बौद्ध भिक्षु भी थे और उस काल के वे पंजाबी ग्रामीण व ब्रिटिश इंजीनियर भी दोषी थे, जिन्होंने पुराने गड़े खजानों की तलाश में अवशेषों से छेड़छाड़ की। मगर जो भी अब तक मिला है वह बताता है कि अविभाजित भारत के उस भाग में लगभग चार हजार वर्ष पूर्व भी सभ्यता एवं निर्माण कलाएं, पूर्णतया विकसित थीं। मुअनजोदड़ो के भग्नावशेषों से प्राप्त उत्तरकालीन मुहरों का ईसा से लगभग छाई हजार वर्ष पुराना काल इसी तथ्य की पुष्टि करता है। हड़प्पा की खोदाई में एक कोण के आकार का शृंगारदान उन शृंगारदानों की तरह का है जो इस खोदाई में राजाओं की कब्रों पर भी मौजूद पाए गए।
  • इसी क्रम में (वर्तमान) पाकिस्तान में अनेक ऐसे हिंदू मंदिरों के अवशेष मौजूद हैं जो उस काल की सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्मिक आचरण की गवाही देते हैं।

गांधार कला


  • वास्तव में ग्रीक भारतीय कलाशैली का विकसित स्वरूप गांधार शैली कहलाता है। यह शैली अफगानिस्तान और पश्चिमी पंजाब के बीच गांधार क्षेत्र में ही फली-फूली थी। इस शैली के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अवशेष अफगानिस्तान के जलालाबाद, हड्डा और बामियान क्षेत्रों के अलावा स्वात घाटी, पेशावर (पुष्कलावती) और तक्षशिला सरीखे क्षेत्रों से भारी मात्रा में मिले हैं।
  • इस काल की मूर्तिकला का अध्ययन करना हो तो वर्तमान भारत में शायद अधिक सामग्री प्राप्त भी नहीं है। लाहौर और पेशावर के संग्रहालयों में यह सामग्री मौजूद है, मगर इसका महत्त्वपूर्ण भाग सिर्फ ब्रिटिश संग्रहालय में ही उपलब्ध है। वैसे अफगानिस्तान क्षेत्र के अनेक महत्त्वपूर्ण अवशेष पेरिस के संग्रहालय ‘मूजी गीर्मे’ में भी बिखरे पड़े हैं।
  • इसी कलात्मकता के दर्शन मुझे 1988 में कटासराज की यात्रा के मध्य हुए। यहीं पर नियुक्त एक उपायुक्त (जो कि स्वयं भारतीय दर्शन और पुरातत्त्व के छात्र रहे थे) ने अनौपचारिक बातचीत में बताया था कि भारतीय व्याकरण के सूत्रधार पाणिनि का जन्म यूसफजई इलाके में स्थित लाहूर नामक गांव में हुआ था। यूसफजई का पूरा क्षेत्र गांधार का मध्य भाग माना जाता है।

  • इस क्षेत्र में कनिष्क ने कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्माण कलाकार थे। इनमें पेशावर का विशाल स्तूप भी शामिल था। इस स्तूप का उल्लेख चीनी यात्री फाह्यान और हुएत्सांग ने भी किया है। फाह्यान के अनुसार यह स्तूप 638 फुट ऊंचा था और दंड व छत्र के अलावा इसकी अठारह मंजिलें थीं जबकि आधार में भी पांच स्तर थे।
  • उन्हीं से प्राप्त विवरणों के अनुसार उसी इलाके में एक ‘शाहजी की ढेरी’ जहां पुरातत्त्व विभाग की ओर से खोदाई भी की गई थी। यहां भी एक विशाल स्तूप का आधार मिला है, जिसकी परिधि 186 फुट है। इसी स्तूप के गर्भ में एक अस्थिपेटी मिली थी, जो प्राप्त विवरणों के अनुसार कनिष्क के काल की था। लगभग आठ फुट ऊंची इस पेटी के ऊपर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। इसके ऊपरी भाग में ही बुद्ध की प्रभामंडलधारी स्वर्ण प्रतिमा है। दोनों ओर बोद्धिसत्व प्रणाम की मुद्रा में बैठे हैं। साथ ही एक अभिलेख है जिसमें कनिष्क और अगिशल का नाम खुदा है। अगिशल के बारे में बताया यही जाता है कि वह एक ग्रीक सुनार था।
  • जातक कथाओं में दिए गए वर्णन के अनुसार तक्षशिला में भी बुद्ध के समय एक विशाल विश्वविद्यालय था। वहां की खोदाई में शक-पार्थव, हिंदू-ग्रीक, मौर्य-शुंग और कुषाण युग की इमारतें व मूर्तियां मिली हैं।
  • इन मूर्तियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें मूर्तिकारों ने मूर्तियों के अंग-प्रत्यंग, पूरे सूक्ष्म विवरणों के साथ छेनी और हथौड़ी से गढ़े। कहीं भी किसी मूर्ति की पीठ पर या नीचे कलाकारों ने अपनी कला का सृजन वर्ष या अपना नाम देने का प्रयास भी नहीं किया।
  • मुअनजोदड़ो और हड़प्पा की खोदाई से प्राप्त कुछ मूर्तियां तो अद्भुत हैं। दो मूर्तियों का जिक्र अक्सर कलाविदों और शोधार्थियों ने किया है। एक मूर्ति नर्तक की है, दूसरी नर्तकी की मूर्ति है। दोनों मूर्तियों में मुद्राएं गतिशील दिखती हैं। एक लय ताल मौजूद है। मूर्तियां कई कोणों से क्षत विक्षत हैं, मगर जो भी अंग, बांहें, पांव, ग्रीवा, जांघें बची हैं, उनमें भांव भंगिमा, मुद्रा व लय ताल पूरी तरह मौजूद हैं।
  • मुअनजोदड़ो के संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि बलूचिस्तान (क्वेटा, कुल्ली व नंदना) और सिंध के अम्री क्षेत्रों की खुदाइयों से स्पष्ट हुआ है कि ईसा से लगभग चार शताब्दी पूर्व इस क्षेत्र में कुछ ऐसी जातियां आर्इं, जिनकी सभ्यता ईराक से जुड़ी थी। खेती-बाड़ी और पशुपालन के अलावा चक्राकार बर्तनों और कलाकृतियों के चित्रण और मातृदेवी आदि के विभिन्न स्वरूप भी उसी काल से मिलते रहे हैं।
  • समूची खोदाइयां यह प्रमाणित करती हैं कि मुअनजोदड़ो और हड़प्पा सैंधव सभ्यता के दो प्रमुख नगर थे।



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