जीव विज्ञान शब्दावली

  1. एन्टीबायोटिक्स (Antibiotics)- यह औषधियों का वह वर्ग है जो सूक्ष्मजीवों से बनाया जाता है और उन्हीं रोगकारक कीटाणु को मारती है। जैसे-पेनीसिलीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन, टेरामाइसीन, आरोमाइसीन इत्यादि।
  2. टीका (Vaccine)- टीका में किसी रोग के कमजोर कीटाणु शरीर में प्रवेश कराये जाते हैं ताकि शरीर स्वयं उनसे रक्षा के लिए एन्टीबाडीज तैयार कर ले। उदाहरण- बी.सी.जी. का टीका क्षयरोग के लिए, ए.टी.एस. का टीका टिटनेस के लिए इत्यादि।
  3. वायु श्वसन- ऑक्सीजन की उपस्थिति में जब ग्लूकोस ऊर्जा निर्मुक्त करने के साथ कार्बन डाइआक्साइड एवं जल में रूपांतरित होता है तो यह क्रिया वायु श्वसन कहलाती है।
  4. न्यूक्लिपेटाइड (Nucleotide)- डी.एन.ए. कई न्यूक्लियोटाइड से मिलकर बना होता है। न्यूक्लियोटाइड में नाइट्रोजनी आधार, फास्फोरस तथा डिआक्सीराइबोज शर्करा होती है। नाइट्रोजनी आधार में प्यूरिन (एडिनीन, ग्वानिन) तथा पिरीमिडीन (थायमिन एवं साइटोसीन) होता है।
  5. संसर्गज रोग- कोई भी बीमारी जो किसी अन्यरोगी के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है उसे संसर्गज रोग कहते हैं। जैसे-प्लेग, कोढ़, क्षयरोग इत्यादि।
  6. कृत्रिम बीज(Artificial Seeds)- कृत्रिम बीज जैव प्रौद्योगिकी के द्वारा बनाये गये बीज है जिनके द्वारा ऐसे पौधों के प्रवर्धन में मदद मिलेगी जिनमें या तो बीज बनते ही नहीं या फिर बनते हैं तो बहुत कम। जैव प्रौद्योगिकी द्वारा प्राप्त इस नई तकनीक का नाम कायिक भ्रूण जनन (Somatic embryogenesis) है। यह ऊतक संवर्धन पर आधारित विभाजन प्रक्रिया है जिसमें कोशिकाओं को कृत्रिम संवर्धन माध्यम में उगाया जाता है जिससे आनुवंशिक रूप से लगभग समान भ्रूण हों और प्रत्येक भ्रूण नये पौधे बनाने में सक्षम हो। इन कायिक भ्रूणों को सोडियम एल्जिनेट, कैल्सिमय-एल्जिनेट, पालीएक्रेमाइड जैल आदि के खोल में रखा जाता है। इसे ही ‘कृत्रिम बीज’ कहते हैं।
  7. ऊतक संवर्द्धन (Tissue culture)- इसमें ऊतकों के टुकड़े या कोशिकाओं को विशेष पोषक माध्यमों से उगाते हैं। इस तरह कोशिका की वृद्धि के लिए आवश्यक तत्वों का अध्ययन और उनकी बुद्धि, विभेदन और उपापचय क्रियाओं का ज्ञान होता है। यह विधि पौधों को सुधारने में काफी महत्वपूर्ण है।
  8. अंडोत्सर्ग- अण्डाशय से परिपक्व अण्डाणु का उत्सर्जन अंडोत्सर्ग कहलाता है। सामान्यता मासिक धर्म के चक्र के मध्य विन्दु के लगभग 28 दिन में अंडाणु का उत्सर्जन होता है।
  9.  पीतपिण्ड ग्रंथि (Bile gland)– यह एक अस्थायी अन्तःस्रावी ग्रंथि है जो एलारमोब्रेक मछलियों, पक्षियों तथा स्तनियों के अण्डाशय में पायी जाती है।
  10. अतिसार- अंतड़ियों का गम्भीर संक्रमण जिससे बार-बार दस्त होता है। इसके साथ खून तथा ओव गिरता है।
  11. आइस्ट्रोजन (Oestrogen)- स्त्री लैंगिक प्रभाव हार्मोन का नाम आइस्ट्रोजन (Oestrogen) है । यह अण्डाशय में बनता है. और स्त्री के गुणों का निर्धारण करता है।
  12. कपाल तंत्रिका- मस्तिष्क से सीधे और स्वतंत्र रूप से मिलने वाली 12 जोड़ी स्नायु तंत्रिकाओं में से एक तंत्रिका को कपाल तंत्रिका कहते हैं।
  13. एन्टीबायोटिक (Antibiotic)– सूक्ष्मजीवो जैसे-जीवाणु, विषाणु, कवक आदि से प्राकृतिक रूप से तैयार किये गये रसायन का नाम एन्टीबायोटिक है। ये रोगकारक सूक्ष्मजीवो को नष्ट करते हैं।
  14. थ्राम्बोसिस – शरीर कि किसी भाग में चोट इत्यादि से जब रक्त निकलता है तो लगभग 3-6 मिनट में रक्त का थक्का बनकर रक्त का बहना बन्द हो जाता है इसे थ्राम्बोसिस कहते है।
  15. होम्योपैथी- यह, चिकित्सा की एक पद्धति है जो ‘जहर की दवा जहर है’ यो सिद्धान्त पर आधारित गैर पारम्परिक प्रणाली है। होम्योपैथी चिकित्सा के प्रतिपादक सेमुअल हैनीमन (1755- 1843) जर्मनी निवासी थे।
  16. एच.आई.वी. (H.I.V.)- एड्स (AIDS- Acquired Immuno Deficiency Syndrome) की बीमारी एक विषाणु (Virus) से होता है जिसे HTLV-III (Human T Lymphotrophic Type-III) या ARV(Aids Related Virus) कहते हैं। वायरस वर्गीकरण की अंतराष्ट्रीय समिति ने इसे एच.आई.वी.का नाम दिया है।
  17. हृदय स्पंद- स्पन्द निलय प्रंकुचन में हृदय का आकार छोटा हो जाता है। इसका शिखर तन्य हो जाता है और स्टार्च के बायीं ओर पांचवें अन्तराशिरीय अवकाश में शिखर के उठाव के स्थान पर वक्षीय दीवार पर चोट करता है। इस घटना को हृदय स्पन्द कहते हैं। वक्ष पर हाथ रखकर हृदय स्पन्द को सुना जा सकता है।
  18. रुधिर (Blood)- रुधिर एक लाल रंग का द्रव्य है जिसकी प्रतिक्रिया क्षारीय (pH-7.4) होती है। इसका स्वाद लवण जैसा होता है। रुधिर का विशिष्ट घनत्व 1.050-1.060 होता है।
  19. हरितलवक (Chlotoplast)- ये हरे पौधों में पाये जाने वाले वर्णक (pigment) है जो प्रकाश की उपस्थिति में प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthetic) में सहायता करते हैं। कवक में हरितलवक नहीं पाया जाता है।
  20. डार्विन का सिद्धान्त- डार्विन ने 1859 में अपनी पुस्तक ‘ओरिजिन आफ स्पेसीज’ (Origin of Species) में विकास का सिद्धान्त बताया था जो इस प्रकार हैं-

(A) अस्तित्व के लिए संघर्ष (Struggle for existence)- पृथ्वी पर एक निश्चित मात्रा में जगह, खाद्य पदार्थ इत्यादि उपलब्ध है किन्तु जीवों की संख्या लगातार बढ़ रही है अतः अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष होता है।

 (B) योग्यतम की उत्तरजीविता (Suruival of fittest) –संघर्ष के पश्चात् योग्य, बलवान, बुद्धिमान जीव बचेगें।

(C) प्राकृतिक चयन (Natural Selection)- संघर्ष के बाद जो योग्यतम जीव होंगे प्रकृति उन्हीं को जीवित रहने के लिए चयन करती है। इस प्रकार अयोग्य व कमजोर जीव प्राकृतिक रूप से समाप्त होते जाते हैं और नयी योग्य जातियां विकसित होती हैं।

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